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अपने कलात्मक गुणवत्ता की पहचान लिए, पाषाण शिल्पकला या पत्थर शिल्पकला, बिहार में मौर्य काल के दौरान से ही लोकप्रिय रही है। बिहार के पत्थर शिल्प ने जटिल वास्तुकला कृतियों के माध्यम से अपनी रचनात्मक उत्कृष्टता दिखाई है। बलुआ पत्थर को तराश कर पत्रों पर की गयी शाही नक्काशी समृद्ध एवं सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख करती है। विभिन्न स्तूप और मठ, बिहार के कारीगरों की उत्कृष्ट कलात्मक गुणवत्ता की निशानी हैं।

बिहार की सबसे प्रसिद्ध पत्थर की नक्काशी में लौरिया नंदनगढ़ और कोल्हुआ में अशोक स्तंभ हैं, साथ ही गुप्ता काल के मुंडेश्वरी मंदिर परिसर भी हैं। गया जिले के पथरकट्टी में इस कला का अभ्यास किया जाता है। इस शिल्प में इस्तेमाल होने वाला मूल कच्चा माल संगमरमर और ग्रेनाइट है। यह कारीगरों द्वारा दस्तकारी का एक अनूठा उत्पाद है। यह शिल्प बिहार के गया जिले में तकरीबन 500-700 परिवारों की आजीविका साधन है। बिहार में पाषाण कला के अन्य केंद्र नालंदा, कैमूर और पटना में हैं। उत्कृष्ट नक्काशी के साथ धार्मिक देवी-देवताओं की मूर्तियां भी शानदार ढंग से निर्मित की जाती है। शिल्पकारों के नवीन विचारो की वजह से आधुनिक जीवन में इस कला की लोकप्रियता काफ़ी बढ़ती जा रही है।

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